जिस तरह हम फेसबुक पर लाइक्स के लिए तरसते हैं काश कि हम अपने और अपनों के लिए तरसते

कहते हैं कि कवि जब ‘भावनाओं की प्रसव’ से गुजरते हैं तो कविता प्रस्फुटित होती है .  कविवर शुक्ल जी ने तो यहाँ तक कहा की ‘कविता से मनुष्य-भाव की  रक्षा होती है’  और इसे जीवन की अनुभूति कहा . दरअसल यूँ कहें की कविता वह साधन है जिसके द्वारा सृष्टि के साथ मनुष्य के रागात्मक संबंध की रक्षा और निर्वाह होता है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. लेकिन आज हम साहित्य की इस विधा से महरूम होते जा रहे हैं. कारण कई हैं पर सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक कारक ‘अपने आप में न होने’ का है और साहित्य में ‘होने’ मतलब ‘अपने आप में होना है ; अपने अस्तित्व को जानना है’ और इसका सबसे बड़ा श्रेय जाता है तकनिकी के दुरूपयोग को .  इसलिए प्रश्न है कि Is social media actually connecting people ?

Topic:  Is social media actually connecting people?

आज जिसप्रकार तकनिकी दौर चल रहा है चाहे वह व्हाट्सएप्प , ट्विटर ,फेसबुक हो या चाहे कोई डंका पीटने वाले न्यूज़ चैनल  ; और हम जितने इसके करीब हैं और होते जा रहे हैं वास्तव में हम अपने आप से उतने ही दूर होते जा रहे हैं.  समय तकनिकी द्वारा अपने दिमाग को उन्नत करने का है न की उसमे डूबकर जान देने का.  आज जिस तरह हम फेसबुक पर लाइक्स के लिए तरस रहे हैं काश कि हम अपने और अपनों के लिए तरसते. इसलिए सोशल नेटवर्किंग में समाज नहीं अपितु समाज में सोशल नेटवर्किंग बनाए.  बुरा कुछ भी नहीं होता अगर उसका उपयोग सही और सुचिता के साथ किया जाए. पेशे से पत्रकार श्री मदन झा की कुछ कविताएँ हैं जो आज के इस सन्दर्भ में सारगर्भित है . सम-सामयिक विषयों पर केन्द्रित इनकी कविताओं में जीवन और दर्शन मूल रूप से दिखाई देती है .

१. फेसबुक/लड़ाई की कमाई

14 वर्षों में भगवान रामचंद्र वनवास से लौटकर आए थे
ठीक उतने साल पहले वर्चुअल दुनिया में सजा एक मंच
सामाजिक नेटवर्किंग सेवा के लिए
उसपर सबको मिली भरपूर जगह
साहित्यकार हो या कोई कलाकार
या फिर राजनीति से जुड़े हुए लोग
या कोई और…क…भ…द…ब…ह…म
अब तक इस सामाजिक मंच पर
चढ़ चुके हैं सवा दो अरब तक लोग
मंच पर न भाषा की कोई मर्यादा है
न शीलता व संस्कृति का कोई बैरियर

मन में जो आए, उसे खुलेआम लिखो-बोलो
फ्रेंड बनाने को जिसे भेजे थे पहले रिक्योस्ट
सहर्ष किया था कंफर्म, अब उससे लड़ो-झगड़ो
जान लेने व देने की हद तक पार करते रहो
न इस पर कोई रोक-टोक और न कोई सीमा
लाइक पाने की लालच, कंमेंट बढ़ाने की होड़
तुम्हारी नफरत-बकवास की चंद लाइनों पर
दनादन आ रहे हैं लाइक, गिर रहे हैं कमेंट
लाइक की माला बनाओ, कमेंट एफडी कराओ

सामाजिक मंच के मालिक का मकसद साफ है
इस मंच से लोगों को समाज से जोड़ना नहीं है
बनाना है खुद की पूंजी, बढ़ाना है अपना व्यापार
और मालिक ने बना ली है अकूत धन व संपत्ति
पर, हम व आप नफरत की आग में झुलस रहे हैं
आपस में लड़…मर रहे! पर, कब तक और क्यों?
आखिर कब तक…हमसब एक-दूसरे से लड़ते रहेंगे यार
और सामाजिक मंच के मालिक की तिजोरी भरते रहेंगे!

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Is social media actually connecting people
Is social media actually connecting people ??

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वैसे तो बड़ा मुश्किल होता है इस पद (खासकर पत्रकारिता, जो अमूमन पुन्जिपयों के हाथों बिकी हुयी है ) पर रहकर  इतने बेबाकी से अपनी बात कहना और अपने लिखे हुए चंद शब्दों को प्रकाशन के लिए देना , लाजिमी है की रोटी भी छीन जाये और कई ऐसे लोग मिले जो अपनी बात इन्हीं कारणों से कह न पाए . भोजपुरी फिल्म्स का यह मंच सिर्फ फ़िल्मी ही नहीं वरन साहित्य से आज के नए पीढ़ियों को रु-ब-रु कराता है एवं  नए लेखको और कलाकारों को उसकी स्वतंत्रता प्रदान करता है और अपनी बात  बेझिझक रखने का .
मदन झा आज के युवा कवियों में से एक है . अखबार, पत्र-पत्रिकाओं में बेबाक लेखनी से पहचान बनाने वाले मदन झा  फ़िलहाल बिहार के भागलपुर जिले  में दैनिक भास्कर के वरिष्ठ पत्रकार हैं एवं कई कला व सांस्कृतिक मंचों से जुड़े हैं .

2. कनफूजन में मरेमुरारी
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पिछले कुछ दिनों से
मरेमुरारी
कन्फुज चल रहा है
क्योकि वह
अपने एक
वरीय सहयोगी (व.स.) का
विचार समझने में लगा है
और लगातार उलझ
रहा है

एक दिन व.स. ने उसे कहा-
अगर कोई मेरा कॉल
एक बार में नहीं करता रिसीव
तो मैं उसका चार बार तक
कॉल नहीं करता रिसीव

कुछ दिन बाद फिर
व.स. ने उससे कहा-
मैं हत्या का भी शौक रखता हूँ
अगले ही दिन
व.स. ने मरेमुरारी से कहा-
गाँधीजी महान थे
और उनके विचार मेरे लिए सर्वोपरि है

यह सब सुनने के बाद
मरेमुरारी तनाव में आ गया था
गुस्से में बडबडाने लगा था-
उतारकर जूते सब के सामने
तड़ातड़ा व.स. के गालों पर जड़ दूँ
और चिखुं-चिल्लाऊ जोर-जोर
हाँ, गांधीजी महान थे
और उनका विचार
सर्वोपरि था है और रहेगा
अगर कर सकते हो रिसीव
तो करो ये विचार
एक के बदले चार बार

…लेकिन तब
मरेमुरारी को याद आ जाती
संस्कृति तहजीब की
और फिर हो जाता कन्फुज

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३. अंतर द्वन्द

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गर ऐसा हो जाए की
आप सोचने लगे और दिमाग काम करना बंद कर दे
बोलने लगे और मुंह को लकवा मार दे
हँसने लगे और आँखों में आसू भर जाये
सिस्टम के खिलाफ प्रतिरोध में हाथ उठे
और हिलने लगे समर्थन में हाथ
अगर सचमुच में ऐसा हो जाए
तो क्या तब और अब में कोई फर्क आएगा?
क्यों नहीं यहीं से सोचना शुरू करें
अब बताइए क्या जवाब मिला?

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४. अस्तित्व की खोज
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वह दीखता भी आदमी की तरह था
बोलता भी आदमी की तरह था
रहता भी आदमी के बीच में था
लेकिन
वह किसी का आदमी नहीं था
इसीलिए तो
वह आदमी नहीं था

हालांकि
वह
बनना चाहता था आदमी
पर
किसी एक का नहीं
बल्कि
सबका
इसीलिए
करता था हर आदमी का सम्मान
बोलता था आदमी की भाषा
करता था आदमी से आदमी की तरह बर्ताव
बहुत वर्षों तक
वह
इन्ही
शर्तों पर जिया
और
आदमी बनते बनते रह गया

समय बीता
जमाना बदला
अब
उसके पास सबकुछ है
दो मुंह की भाषा
गिरगिट के रंग
मगरमच्छ के आंसू
शेर के दांत
भालू के नाखून
सांप के विष
उल्लू की आँख
चील के डैने
और न जाने क्या क्या

यह सब
उसने सीखा
‘आदमी’ बनने के लिए
अब
वह किसी का नहीं
बल्कि अब
उसके
कई आदमी हैं
लेकिन
अफ़सोस की
वह आज भी आदमी नहीं है

दरअसल
आदमी और ‘आदमी’ के ‘बीच’ का वह आदमी
‘आदमी’ बनने की होड़ में
‘था’ को भूल रहा है
मतलब
अपनी अतीत और औकात को
रौंद रहा है
तभी तो
‘वह आदमी’
आज भी
अपनी
अस्तित्व की खोज में
भटक रहा है

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५. जूते की आवाज़

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कभी कभी

जूते की अहमियत
सामने वालों को बताओ
अपने जूते दिखाओ
और
जिंदगी की हकीकत से
सामना करवाओ

उसे जूते दिखाकर
बतलाओ
…ये जूते
जो मैंने
साढ़े तीन सो रुपये में
ख़रीदे थे
पिताजी की मेहनत से
उपजाए धान
चालीस किलो बेचकर

आप से मिलने
और मूल प्रमाण पत्र
बनवाने के चक्कर में
बीत गए तीन साल
इस दोरान
पूरी तरह से घिस
चुके हैं जूते

अगर आप चाहें तो
ये जूते भी ले लें
और मुझे मेरा
प्रमाण पत्र दे दें
और अब
आप मेरे चेहरे को
मत देखें
ये तो हो चुके हैं
धुप में
दोड़ते दोड़ते लाल

भले फटे हों जूते
पर अब भी है
काले और दमदार
और जब यह
बोलेगा
तो निकलेगी
चालीस किलो की
आवाज़
तो फिर
आपका चेहरा भी
हो जायेगा
सुर्ख लाल ||

 भोजपुरी फिल्म्स का यह मंच सिर्फ फ़िल्मी ही नहीं वरन साहित्य से आज के नए पीढ़ियों को रु-ब-रु कराता है एवं  नए लेखको और कलाकारों को उसकी स्वतंत्रता प्रदान करता है और अपनी बात  बेझिझक रखने का . भोजपुरी फिल्मस के अतिथि लेखक बने या अपनी प्रकाशन ऑनलाइन प्रकाशित करवाएं बिना किसी शुल्क के . आइये हमसे जुड़िये अपनी रचानाओं के माध्यम से, फूहड़ता से दूर फिर से वही सभ्य-सुन्दर व शिक्षित समाज का निर्माण में ||

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